मध्य पूर्व चरमपंथ के ख़िलाफ़ छिड़ी लड़ाई के केंद्र में है. अपनी तकनीकी मज़बूती के लिए मध्य पूर्व के ये देश अमरीका, ब्रिटेन और रूस जैसे
तकनीकी रूप से उन्नत देशों की ओर ताक़ते हैं.
इसलिए मध्य-पूर्व में तकनीकी सप्लाई करने को लेकर बहुत प्रतिद्वंद्विता है.
लेकिन
जहां इसके ख़रीदार एक तरफ़ इसराइल और खाड़ी के अरब देश हैं तो वहीं दूसरी
तरफ़ ईरान, इसके सहयोगी और हिज्बुल्लाह और हूती जैसे समर्थक भी हैं.
अमरीका ने मध्य पूर्व में अल-क़ायदा और तथाकथित इस्लामिक स्टेट (आईएस) के ख़िलाफ़ अपने अभियान में सशस्त्र ड्रोन का भरपूर इस्तेमाल किया है.
प्रीडेटर और रीपर जैसे ड्रोन का उसने सीरिया, इराक़, लीबिया और यमन में इस्तेमाल किया है.
प्रीडेटर से बड़ा, भारी और कहीं अधिक क्षमता वाला एमक्यू-9 रीपर है जो कहीं बड़े हथियार को लंबी दूरी तक ले कर जा सकता है.
अमरीका के सैन्य सहयोगी ब्रिटेन ने यूएसए से कई रीपर ख़रीदे और इसका इस्तेमाल इराक़ी और सीरियाई लक्ष्यों को ध्वस्त करने में किया.
ड्रोन तकनीक को बेचने के मामले में इसराइल कहीं आगे है. 2018 के एक शोध
के मुताबिक़ बिना हथियार वाले ड्रोन को बेचने के मामले में क़रीब 60 फ़ीसदी वैश्विक बाज़ार पर इसराइल का क़ब्ज़ा है.
अन्य देशों के अलावा इसने
निगरानी करने वाले ड्रोन रूस को भी बेचे हैं और इनमें से कम से कम एक को
उसने तब मार गिराया था जब सीरिया की सीमा से वो इसराइल में घुसने की कोशिश
कर रहा था.
ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने, निगरानी करने और हमले के अभियानों को अंजाम देने के लिए इसराइल अलग अलग तरह के ड्रोन का इस्तेमाल करता है.
इसके
सशस्त्र ड्रोन में हेरॉन टीपी, हर्मिस 450 और हर्मिस 900 शामिल हैं. हालांकि अब तक इसरायल इन सशस्त्र ड्रोनों के निर्यात को लेकर अनिच्छुक ही
रहा है.
हथियार बनाने पर रोक और प्रतिबंधों के बावजूद ईरान ने कहीं बेहतर सशस्त्र ड्रोन विकसित करने की अपनी क्षमता विकसित की है.
2012 में इसने शाहेद-129 के बारे में जानकारी दी जिसका सीरिया और इराक़ में लक्ष्यों को भेदने में इस्तेमाल भी किया गया.
जबकि 2018 से वह मोहाज़ेर 6 नामक ड्रोन बना रहा है.
हालांकि
ईरान के ड्रोन कार्यक्रम का दूसरा पहलू भी है कि वो इसे इस इलाक़े के अपने
सहयोगियों को बेचना या हस्तांतरित करने की इच्छा भी रखता है.
यूनाइटेड अरब अमीरात (यूएई) ने चीन में बने विंग लूंग 1 ड्रोन को तैनात किया है, जिसे उसने यमन और लीबिया के गृह युद्ध में लक्ष्यों को नष्ट करने
में इस्तेमाल किया.
यूएई जनरल हफ्तार के नेतृत्व वाले गुट का समर्थन करता है.
लीबिया में राष्ट्रीय सहमति वाली सरकार के समर्थन में तुर्की में बने ड्रोन इस्तेमाल किए गए.
अमरीकी
ड्रोन को ख़रीदने में असमर्थ तुर्की ने अपने ख़ुद के ड्रोन बनाए और उनका
इस्तेमाल उसने तुर्की और सीरिया के कुर्दिश टारगेट को भेदने में किया.
वहीं इराक़, जॉर्डन, सऊदी अरब, मिस्र और अल्जीरिया जैसे देशों ने चीन में बने ड्रोन ख़रीदे हैं.
व्यवस्था विरोधी ताक़तों में हूती विद्रोही मानवरहित ड्रोन का सबसे कारगर इस्तेमाल करते हैं.
संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों के मुताबिक़, वो कई ऐसी सिस्टम का इस्तेमाल करते हैं जो ईरानी प्रौद्योगिकी पर बहुत अधिक निर्भर हैं.
हूती विद्रोहियों ने क्यूसेफ़-1 का इस्तेमाल किया जो संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों के मुताबिक़, बहुत हद तक ईरानी मॉडल के समान है.
ये वो 'कामिकेज़ ड्रोन' हैं जिन्हें उनके टारगेट से जानबूझ कर टकराया
गया. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, हूती एक और उन्नत ड्रोन
का इस्तेमाल भी करते हैं, कभी कभी इन्हें समद-2/3 बताया जाता है, माना जाता
है कि ये एक छोटा विस्फोटक वारहेड है.
ऐसा माना जाता है कि लेबनान
के शिया मुसलमान चरमपंथी संगठन हिज़्बुल्लाह ने कम संख्या में ड्रोन के
उपयोग किए हैं लेकिन माना जाता है कि ये उन्हें ईरान से मिले थे.
सीरिया की लड़ाई में पहली बार ड्रोन का व्यापक इस्तेमाल देखा गया जिसका उपयोग हवाई सुरक्षा को तबाह करने के लिए किया गया.
तब विद्रोहियों ने सीरिया में स्थित रूसी सैन्य ठिकानों पर कई ड्रोन हमले किए थे.
स्पष्ट है कि सशस्त्र ड्रोन तकनीक का अब व्यापक इस्तेमाल हो रहा है.
विरोधाभास
ये है कि नई तकनीक वाले उन्नत ड्रोन को अपने सहयोगियों को बेचने की अमरीका
की अनिच्छा ने ड्रोन के प्रसार की संभावनाओं को ख़त्म नहीं किया क्योंकि
चीन ने बहुत हद तक इसके समकक्ष टेक्नॉलॉजी के साथ बाज़ार में क़दम रखा है.
लक्ष्य
भेदने के लिए मानवरहित ड्रोन के इस्तेमाल ने एक नई तरह की लड़ाई छेड़ते
हुए युद्ध और शांति के बीच की रेखा को बहुत हद तक मिटा दिया है.
मानवरहित ड्रोन ने अपने लक्ष्य पर सटीक प्रहार करने में क्षमता हासिल की है, साथ ही इसके हमलों में (अगर ख़ुफ़िया जानकारी पक्की है तो) टारगेट के
आस पास नुक़सान न के बराबर होता है.
आतंक के ख़िलाफ़ तथाकथित युद्ध में सशस्त्र ड्रोन या यूएवी एक ज़रूरत के मुताबिक़ विकसित किया गया एक कारगर हथियार बन गया है.
लेकिन तकनीकी रूप से कम उन्नत देशों के ड्रोन बनाने की वजह से काफ़ी हद तक एक असमान जद्दोजहद भी शुरू हो गई है.
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